राजा तो मैं कभी रहा नहीं। न तो किसी ज्योतिषी ने कभी राजगद्दी पर बैठने की बात बताई है। वैसे उम्मीद पर जिन्दा जरूर हूं कि इत्तिफाक से ‘कोई मिल गया’ तो शायद राजभोग करने का सौभाग्य प्राप्त हो जाए। उम्मीद इसलिए पुख्ता होती दिखती है कि ‘कल तक जो बेचते थे दवा-ए-दिल वह दुकान अपनी बढ़ा चले’ और गद्दीनशीन बन कर गुलछर्रे उड़ाने लगे।
बहरहाल सबकी किस्मत अलग-अलग लिखी जाती है। यह लिखने वाले के मूड पर निर्भर
दायरा
Wednesday, 26 March 2008
Monday, 10 March 2008
हम किधर जा रहें?
लोगों में गजब की बेचैनी है। दौड़ती दुनिया के साथ दौड़ने वाले अक्सर बेतुका सा सवाल पूछते हैं 'अमाँ भाई यह दुनिया जा किधर रही है? है न बेतुका सा सवाल? जैसे मैंने दुनिया का ठेका ले रखा है। जाहिर सी बात है कि आज कि तारीख में खुद दुनिया बनाने वाला उतर आए तो उसकी समझ में नही आएगा कि उसकी बनाई दुनिया किधर जा रही है?
इसके अलावा जुगराफिया की जमात में दिखने वाला ग्लोब तो हैं नही दुनिया, जिसकी चाल समझ में आ
इसके अलावा जुगराफिया की जमात में दिखने वाला ग्लोब तो हैं नही दुनिया, जिसकी चाल समझ में आ
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हम किधर जा रहें?
Sunday, 9 March 2008
खिचड़ी भोज का लुत्फ
आजकल अपने लंगोटिया यार मीर साहब ‘खिचड़ी भोज’ के पीछे दीवाने बने हुए हैं। कहते हैं कि जितना मजा इफ्तार पार्टी में नहीं आता है उससे ज्यादा मजा ‘खिचड़ी भोज’ में आता है क्योंकि उसमें खाने वाले कई आइटम होतें हैं। खिचड़ी एक शार्टकट रास्ता होता है। भई खाने का मौज तो बस इसी में मिलता है। आए दिन अपने मीर साहब का नाम खिचड़ी भोज में शामिल होने की वजह से अखबार में फोटो सहित सुर्खियों में रहा करता है। यही
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स्वयंवर होना चाहिए।
भाई सुना है, पढा़ है कि पुराने जमाने में स्वयंवर का आयोजन किया जाता था जिसमें कन्याएं बन-ठन कर आए राजे-महाराजाओं का बड़े ध्यान से जायजा लिया करती थीं और जो पसंद आता था, उसे जयमाल पहना कर अपना जीवन साथी बना लिया करती थीं। जैसे-जैसे दिन बीतते गए और शोरे पुस्ती बढ़ती गई, लोग जबरन अपने गले में जयमाल डलवाने के लिए अपनी शक्ति का साइनबोर्ड टांगे हुए स्वयंवर में तशरीफ ले जाते थे। पृथ्वीराज चौहान और
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Friday, 6 January 2006
स्वदेशी अंगना, परदेशी बिजली
स्वदेशी अंगने में परदेशी बिजली का क्या काम? यूं तो स्वदेशी बैठक में ‘परदेशी-परदेशी’ गाना खूब जमता है लेकिन कभी किसी परदेशी के आ जाने पर सबके चेहरे का नक्शा बदल जाता है। अब यह तो अपने मिजाज़ की बात है। उनका भी जवाब नहीं जिन्होने ‘नमस्ते सदा वत्सले’ गाते हुए अचानक ‘विजयी विश्व तिरंगा प्यारा’ गाना शुरू कर दिया। एक वो लोग भी थे जिन्होनें महाराणा प्रताप की जन्मभूमि को नमन करते हुए दिलफेंक परदेशी
Tuesday, 30 August 2005
कलमकारों की माया होली में
अमां कमाल है। लोगो की कलम कैसे कैसे करवट बदलती है? लिखने वाले कलम तोड़कर स्याही गटक जाते हैं। वह तो कहिए भला हो उनका जिन्होंने स्याही को सालिड बनाकर कलम में भर दिया वरना सभी लेखक मिलकर बरसाने में गाना शुरू कर देते ‘मेरा गोरा रंग लै ले, मुझे श्याम रंग दै दे।’ फिर समां जब होली का हो तो क्या कहने। भंग की तंरग में बेसुरे भी सुर में रेंकते-रेंकते दुल्लती चलाने से बाज नहीं आते हैं। लत्ती की आग में अगर
राहत की चाहत
इन दिनों मीडिया वाले खास तौर से इलेक्ट्रानिक मीडिया वालों के पास बस तीन ही मुद्दे रह गये हैं। पहला सुनामी लहरों से हुयी क्षति के आंकड़े गिनाना, दूसरा सुनामी लहरों से दुनिया को बचाने के लिए साईंसदानो और ज्योतिषियों में नया जोश भरना और मदद के लिए लोगों से अपील करना। तीसरा मुददा है आज उनके सामने तमिलनाडु सरकार में राजनीति की सुनामी लहरों को नजदीक से पढ़ना। महीने पन्द्रह दिनों तक यही सिलसिला चला करता
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