उस दिन मेरे सामने था एक सभागार की चहार दीवारियों में सिमटा-सिमटा एक ‘जनक्षेत्र’। वही जनक्षेत्र जो शायद इन दीवारों से बाहर निकल कर शहर राज्य और राष्ट्र की भारी भरकम आबादी में तब्दील हो जाता है और मैं उसकी एक इकाई मात्र रह जाता हूं जो कभी विद्रोहावस्था में सुनामी लहरों की तरह कहर बरपा कर सकता है।
मैं कई बार यह अल्फाज़ गुरूओं पीर पैगम्बरों और देश के जाने पहचाने नेताओं से भी सुनता रहता हूं। फिर एक
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