मेरे सामने अन्तर्राष्ट्रीय महिला दिवस के एक समारोह का निमंत्रण पत्र रखा है। सोचता हूं जब बुलाया गया है तो कुछ न कुछ बोलना ही पड़ेगा। किसी को जिस तरह छपास रोग लग जाता है तो छूटने का नाम नहीं लेता है उसी तरह मुझे सभा समारोहों में माइक से चिपके रहने की आदत सी हो गयी है। क्या बोलता हूँ कैसे बोलता हूँ या सुनने वाले कितना बोर हो रहे है, उस वक्त मुझे इन सबसे कोई मतलब नहीं होता है। माइक छोड़ने को जी नहीं
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